Posted by Hina



जब जिंदा की मुठी में कैद
इक जीवन घुटने लगता है
हथेली की फटी चादर से
आस का अमृत रिसने लगता है

वजह की उंगली जिस पल
दिशाहीन होने लगती है
हाँ, उस पर भी तब
आशंका होने लगती है

जब तन की शक्ति , घीली घीली
आँखों में , सूखने लगती है
साहस के घुटने हिलते हैं तब
रीड की हड्डी झुकने लगती है

जब स्पर्श को बढता अनुरागी,
कंधे को शत्रु लगता है
मित्रों का निश्छल स्नेह भी तब
तरस सा लगने लगता है

बरसों मूक इक जीव्हा को शब्द
किस पल मिलें, कब कौन कहे ?
भरे हुए प्यालों से भाव
किस शन गिरें ,कब कौन कहे ?

एक चित्र सजा के रखा है
सबको दिखा के रखा है
उन सच्चे रंगों की गोअद में
क्या झूठ चुप्पे , कब कौन कहे ?

तारीफ उस पल शायर को भी
उपहास सी लगने लगती है
जब सोती महफ़िल के आँगन में
वह - वही खिलने लगती है

धुत्कार के आदि कानो पर
जब मीठे बोल बरसतें हैं
सूखें खेतों पर यूँ मानो
इक बाड़ सी आने लगती है

ना झूटी तारीफ ना सच्चा
प्यार सहा अब जाता है
करें भी तोह करें क्या ,कहिये
किया भला क्या जाता है !

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