DBB 5014

Posted by Hina

गाड़ी की आगे वाली सीट पर बैठने के लिए
अपने चोट्टे भाई से हमेशा ही दौड़ लगती थी
कभी जब पापा गाड़ी पार्क कर दूकान से कुछ लेने जाते
ड्राईविंग सीट पर लपक के शूमैकर बन जाते थे
उस से भी पुराने बचपन में पापा की गोदी में बैठ गाड़ी चलाती
मेरे हाथ तब होर्न के बने उस चोट्टे से आइलैंड पर खो से जाते थे
पिछली सीट पर मैं और मेरा भाई यूँ फैल कर सोते थे
और वो गाड़ी हमें हर गढ्ढे पर से जादूई कालीन सा उड़ा के ले जाती
उस पुरानी सफ़ेद वैन के बाहर की दुनिया सपनो की दुनिया थी
वहां किसी का एक्सिडेंट नहीं होता था
होता भी कैसे, पापा जो गाड़ी चलाते थे
उस गाड़ी की खिड़की से बस हरे पेड़ और गुलाबी चेहरे दिखते थे
बड़ी अनोखी, बड़ी मायावी गाड़ी थी
उस गाड़ी में ना क्लच-ब्रेक होते थे ना ही कोई गेयर
बस मन की इच्हा से चलती थी
पेट्रोल की जगह भोलापन डलता था
और ज़रा सी ज़िद्द डालें तो एवरेज अच्छी देती थी...
कभी जो पापा स्टीरिंग से हाथ हटा लें, तो यकीन मानें खुद भी चले चलती थी!

आज जो कुर्सी पीछे ना करूँ तो टाँगे पिचक जाती हैं
वो सफ़ेद वैन अब काली होंडा सिटी हो चली है
इस गाड़ी के बहर की दुनिया
धुएं, बेहेस, कानो को चीरती होर्न और पंचर टायर की दुनिया है
पेट्रोल पम्प की लाइन में Godot का इंतज़ार करती बोख्लाई दुनिया हैं
स्टीरिंग व्हील के पीछे कुछ घबरायी सी मैं सीट बेल्ट में बंधी बैठी हूँ
रीअर-वीयू के शीशे में जैसे कोई सिपाही जंग को जा रहा हो
मेरे पहियों के नीचे ना जाने कितनी ज़िंदगियाँ बिछी और रोंधि पड़ी हैं
ये रास्ते ये फलाई-ओवर्स, ये मेरी और ये तेरी लेन
बचपन को लाल बत्ती में तोड़ते युवक
कोई उड़ता हुआ पंछी आसमान से नीचे देखता होगा
तो भला क्या दिखता होगा?
टकराती उलझती आड़ी-तिरछी,
हाथों में तकदीर की रेखाओ समान
बस एक उलझी हुई इंसानियत ही दिखती होगी...

उस सफ़ेद वैन के अन्दर से सब कितना सरल लगता था
कुछ मिनट पहले ही तो था वो सदियों पहले का बरस
उन मुख़र्जी नगर वाले अंकल को 15000 में बेच दी थी
और उस दिन तो पापा भी रोये थे

1 comments:

  1. Tanuj Baru

    अब मुझे भी उस वैन की याद आ रही है :)

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