खुद को खुद से
Posted by
खुद से दोस्ती करने को मन करता है
जब देखती हूँ खुद को तकिये से गुनमुनती
रात को गली के कुत्तों सा
भगाने को मन करता है
कुछ खाने को मन करता है
बेमन जब चम्मच को कलम जैसे लिखते पाती हूँ
यकायक उठकर कुछ
नया बनाने को मन करता है
मायूस यूँ रूठी आएने से
मुह मोड़ कर बैठी रहती हूँ
ठुड्डी पकड़ धुंधले मुह पर आँखें
बनाने को मन करता है
यूँ छोड़ रखा है खुद को
के पास जाते कतराती हूँ
डरते मरते खुद को खुदे से
बचाने को मन करता है
बेजान से मरियल कमरों में जब
दिन-पहर बेसुध हो जातें है
हाथ पकड़ ज़बरदस्ती खुद को
घुमाने को मन करता है
बारिश की बूंदों को मैं जब
व्यर्थ सा गिरता पाती हूँ
गुस्साई मन के हाथों में पत्थर
थमाने को मन करता है
बेचारगी में डूबे खुद पर
तरस तो आता है लेकिन
ठहाके लगाये मुझ उल्लू पर
कभी हसने को मन करता है
1 comments:
very beautifully put.. the helplessness of a mind that gallops without a rein and yet stagnates while it does..'gol gol ghumne ko kahin jana nahi kaha karte' the rebellion of self against self.. the battle is inside of us then why seek solutions outside? :)
Post a Comment